दर्ज़-ए-तारीख किया
मैंने एक शहर
फिर खुद को दी
बद्दुआ दोखज़ की.
इस शहर से
लापता होना आसान नहीं,
चेहरे पे नाखूनों के निशां की तरह
ब्रिटिश हुकूमत के जमा चिन्ह
इस शहर से हो
मेरे चेहरे पर जैसे चढ़ से गए हैं.
शहर नहीं,
कला, मौशिकी और आशिक़ी की
खुली किताब है मैसूर.
मैसूर छोड़ना
जन्नत को जैसे अलविदा कहना!