कच्ची पक्की सड़कों पे पत्थर बहुत हैं....और उनपे चलने की अब आदत सी हो गयी है. उम्र ढलान पे बहुत रफ़्तार से गुजरती है और हमें पता भी नहीं चलता कि हम जा कहाँ रहे हैं....लेकिन जब रुकते हैं तो क्या खोया, क्या पाया का हिसाब बड़ा तीखा लगता है. अपनों को खोना, खुद को खोने से ज्यादा तकलीफदेह है....और उनसे जब आप नज़रें न मिला पायें तो और भी तकलीफदेह.
इश्क से निकला आदमी थोडा पुरातन हो जाता है, थोडा कम अक्लमंद, थोडा कम समझदार और हर एक शख्स को एक ही चश्मे से देखना शुरू कर देता है....इश्क का डिपार्टमेंट शायद है ही कुछ ऎसा!
मैं नहीं जानता
कितना प्यार किया मैंने.
मगर इश्क का
गुलाबी खुमार
बाकी है अब तक आँखों में.
ये नज़्म,
ज़रा रुक
मेरी नज़रों पे अभी
चश्मे हैं सारे.
जब नितांत अकेला रहूँ,
तो आना जेहन में
कॉफ़ी टेबल पे पड़े तुम्हारे ख़त,
पढ़-पढ़ के फाड़ रहा हूँ ये ज़िन्दगी.
तूने इश्क भी बहुत किया
तूने सदमे भी बहुत दिए.
धड़कन के सहारे तू
आज भी चलती है तो
अच्छा लगता है!
मेरे महबूब,
गुस्ताखी माफ़ करना
पर तेरी बेवफाई से
ये बादल बहुत रोये हैं.
अगली दफ़ा,
किसी बंजर से इश्क करना.
जिससे रो न सके वो!