हर रात जब नज्में कागज़ पर उतरती हैं तो लगता है, कुछ येसे दिन भी थे जिनका हिसाब नहीं माँगा जा सकता और कुछ येसे दिन थे जिन्हें फिर से जीने कि कवायते तुम अक्सर करते हो. कभी कभी जब पलाश को लफ़्ज़ों में उतारता हूँ तो लगता है, भरी दोपहरी में भी उसकी पीली रंगत लौट आई हो. अक्सर तुम्हारी उम्मीद से बेहतर वही दिन होता है, जो स्वप्न कि तरह आता है और हकीक़त बन निकल जाता है.....
मुस्कुराते जागी थी
लगा सूरज ना उगेगा आज.
सिक्त होंठो पर
वो मीठी मुस्कान
आँखें तुम में भिगोने को काफी थी.
फिर पूरे दिन का ही हिसाब
ना दिया मैंने किसी को.
दोपहर
जब तुम यूँ सिमटी थी मुझमे
तो लगा सारी धूप ही
आगोश में ले ली हो मैंने.
सिरहाने रखकर कई ख्वाव
मैं सो गया धूप में ही.
हर दिन लंच में
अब वही दोपहर खाता हूँ.
वो शाम कितनी खुशनसीब थी
तीखी नज़रें दिखाती तुम
....और तुम्हारे पीछे भागता मैं
जैसे सूरज रोक रहा चाँद को.
फिर पीछे मुड़
सीने से लगे तुम....
और चांदनी बिखर गई.
झील भी ख़ामोशी से
सब देख रही थी....
अपनी रंगत बदल-बदल.
उस शाम,
कुछ पल खुदगर्ज़ बनना
अच्छा लगा था मुझे!
वो रात,
जैसे बारिशों में
कहीं ओट में छिपे हों हम.
चेहरे पर कई सौ रंग लिए आई तुम
लगा पत्थरों को भिगोने
नदी का बहाव काफी नहीं.
कंधे पर सर रख
तुमने जो ख्वाहिशें बुनी थी.
उन्हीं को सिरहाने रख
हर रात सोता हूँ अब.
उम्मीद को दरिया से निकाल
हर बार टटोलता हूँ
रोज जरा बड़ी हो जाती है....
राह-दर-राह मौसम खुश हैं
उम्र के संग उन्हें भी भीगना आता है.
....और ये चाँद
मुठ्ठियाँ भर भर चांदनी देता है
भले ही नेकी में खुद बुझ जाए.
लगता है ज़िन्दगी मासूम ही सही,
रंगत का तराना तो है!
5 comments:
लगता है ज़िन्दगी मासूम ही सही,
रंगत का तराना तो है!
सुंदर एहसास बिखेरती सुंदर रचना ...!!
शुभकामनायें ...!!
बहुत खूबसूरती से लिखा ही ॥सुंदर रचना
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 17 -05-2012 को यहाँ भी है
.... आज की नयी पुरानी हलचल में ....ज़िंदगी मासूम ही सही .
कभी कभी कुछ पलों के लिए खुदगर्ज़ बनना अच्छा लगता है.
कोमल भावो की और मर्मस्पर्शी.. अभिवयक्ति .......
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