Monday, May 28, 2018

तुम्हारे लिए कविता


मैं तुम्हारे लिए कविता लिखता हूँ
उसमे डालता हूँ प्रेम की तमाम उपमाएं
कई सारे कठिन शब्द और कई मायने.
एक मुट्ठी चाँद को ले घोंटता हूँ,
गार्निशिंग के लिए तारे तोड़ रखे हैं.
नींद, देह, ऑंखें, होंठ, हथेली और लम्स
सबके लिए नयी नयी उपमाएं हैं.
जैसे- नींद विधवा की पथराई ऑंखें हैं
जो दीर्घ तक तुम्हारे स्वप्न देखती हैं.
देह आसमान है तुम्हारी,
जिसे मैं ओढ़ता, बिछाता हूँ.
होंठ नदी के गोल गीले पत्थर हैं
जिन्हें अपने होंठों पे बिठा मैं ईश्वर बना देता हूँ
(जैसे ऐसे पत्थर तुलसी पौधे संग ईश्वर हो जाते हैं.)
हथेलियां तुम्हारी गुजरात और पूर्वोत्तर भारत हैं,
एक में कच्छ के फ्लेमिंगोज़ घूमते हैं
दूसरे में हरियाती ब्रह्मपुत्र नदी है
और दोनों को छू कर चूमने की इच्छाएं हैं.
(बस यही दो जगह देश में अब मैंने नहीं खंगाली हैं.)
लम्स! उफ़्फ़!! हर एक छुअन वो कतरा है
जो खून में दौड़ रही है किसी इम्युनिटी की तरह...
ज़िंदा रहने का कारण बनी हुई है.
लेकिन गार्निशिंग तक ये कविता और तमाम उपमाएं
निरर्थक लगने लगती हैं.
हर कविता में मैं तुम्हारा हो जाना चाहता हूँ,
हर एक दिन पिछली दफे से ज्यादा और बेहतर प्रेम करना चाहता हूँ,
हर नई बार एक नए एहसास से छूना चाहता हूँ,
हर एक बार एक नई प्रेममई नज़र से देखना चाहता हूँ.
मेरा प्रेम किसी कविता में पूरा नहीं समा पाता
मेरे एहसास तमाम उपमाओं में भी अधूरे रह जाते हैं
इसलिए तुमपर लिखी मेरी सारी कवितायेँ अपूर्ण होती हैं.
मैं थककर इस कविता को
अधूरा ही तुम्हें सौंपता देता हूँ
और उस दिन का इंतज़ार करता हूँ
जब मैं अपनी तमाम भावनाये,
एहसास, प्रेम और हृदयेच्छाएं किसी कविता में समा पाऊं,
उसे सार्थक और पूर्ण बना पाऊं.

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