उन परिवारों में भी, जहां औरतों के लिए तमाम पाबंदियां हैं, पुरु षों की उद्दंडता पर कोई लगाम नहीं है। लड़कियां बाहर निकल रही हैं। उच्च शिक्षा लेकर, बेहतर जीवन चुन रही हैं। बावजूद इसके खांटी रूढ़िवादी सोच वाले पुरु षों का समूह हमेशा इस ताक में फिरता है, कि वह स्त्री की देह को अपना शिकार बना ले। इस तरह के सोच वाले पुरु षों को स्त्री की यह तरक्की आंख की किरकिरी लगती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह जश्न नव वर्ष का न होकर होली या किसी आम मेले का होता तो भी स्त्री के साथ हील-हुज्जत करने वालों का हुजूम मौजूद रहता। औरतों के साथ सलीके से पेश आने का शऊर अभी भी पुरु षों में कम ही दिखता है। जो पुरु ष इस तरह की अभद्रता नहीं कर पाते हैं, उनकी भाषा और बोल-चाल में स्त्री के प्रति अश्लीलता व निर्लज्जता साफ देखी जा सकती है।
माननीय तो हमेशा की तरह, रटी-रटाई दुहाई देकर चलते बने। अपनी दिमागी क्षमता भर का गहन विश्लेषण करने के बाद उन्होंने दोहराया, यह सब पश्चिमी पोशाकें पहनने के कारण हुआ। यह जो भीतर से निकला हुआ, शुद्ध पुरु षवादी विचार है; इस पर रोक कैसे संभव है? शायद ही कोई औरत भूली होगी, उप्र के बुजुर्ग नेता का बलात्कार पर दिया गया उदगार-कि लड़कों से ऐसी गलतियां हो जाती हैं। कुछेक साल पहले, दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री ने तुनक कर मीडिया से कहा था, इतनी रात में निकलेंगी बाहर (लड़कियां) तो यही होगा। सत्ता के शीर्ष पर बैठे नुमाइंदों की बयानबाजी बताती है, स्त्री को लेकर इनकी सोच कितनी निचले पायदान पर ठहरी हुई है। छेड़छाड़, छींटाकशी, अश्लील इशारेबाजी के खिलाफ तमाम नियम/कानून बन जाने के बावजूद पुरु षों में सलीका नहीं आया है।
शहरों को स्मार्ट बनाने भर से या हर हाथ में मोबाइल सेट पहुंच जाने से दिमागी संकीर्णताएं व रूढ़िवादी संस्कारों को नहीं बदला जा सकता। उत्सव-आनन्द पुरु षों के लिए आरक्षित नहीं किए जा सकते। इस तरह की कोई भी घटना लड़कियों को मानसिक तनाव देती है और उनके स्वाभिमान को चोटिल भी करती है। आप उन्हें कुछ दें भले ही ना, पर जो उनके पास है, जो उनका अधिकार है, उस पर अपनी गंदी नजर न डालें।
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