हमारे संविधान में ऐसी आपातकालीन व्यवस्थाएं की गई हैं कि कभी बेहद जरूरी कदमों को उठाने के लिए संसदीय संस्थाओं की मंजूरी का इंतजार न पड़े। सरकार को कभी जनहित में फौरी कदम उठाने में रुकावट न आए। लेकिन सरकारें अपने राजनैतिक और अन्य न्यस्त हितों के लिए इन आपात व्यवस्थाओं का दुरुपयोग करने का लोभ नहीं छोड़ पातीं। जाहिर है, अधिकांश मामलों में राजनैतिक बढ़त ले लेने या संसदीय समीक्षा से बचने के तरीकों के रूप में संविधान में प्रदत्त इन आपात प्रावधानों का इस्तेमाल किया जाता है। अध्यादेश जारी करना भी ऐसी ही एक व्यवस्था है।
लेकिन मौजूदा एनडीए सरकार ने तो अध्यादेश जारी करने का ही रिकॉर्ड कायम नहीं किया, बल्कि कई एक अध्यादेश को चार-चार, पांच-पांच बार जारी करवाने का अनोखा रिकॉर्ड कायम किया है। आश्र्चय तब होता है, जब ऐसी सरकार को अध्यादेशों का यह रिकॉर्ड बनाना पड़ रहा है, जिसे तीस साल बाद पहली बार पूर्ण बहुमत हासिल हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने वाजिब ही यह निर्देश सुनाया है कि इस पर शर्तिया रोक लगनी चाहिए और एक बार के बाद दोबारा अध्यादेश जारी नहीं किया जाना चाहिए।
आखिर अध्यादेशों की उम्र छह महीने शायद इसीलिए रखी गई है कि इस बीच कोई-न-कोई संसदीय सत्र जरूर बुलाया जा सकेगा और उसे संसदीय समीक्षा से गुजरना होगा। लेकिन अगर अध्यादेश बार-बार जारी करना पड़े तो समझना चाहिए कि सरकार संसदीय व्यवस्था के पालन में गंभीर नहीं है। या सरकार संसदीय व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए अपने दायित्व का पालन नहीं कर पा रही है। आखिर हमारी संसदीय पण्राली का एक पहलू यह भी है कि किसी पार्टी को चाहे कितना ही बड़ा बहुमत क्यों न हासिल हो, उसे विपक्षी दलीलों पर गौर करना होगा। इस पण्राली में विपक्ष को अनदेखा करने से ही सत्ताधारी दल द्वारा तमाम संस्थाओं के दुरु़पयोग की मिसालें कई बार मिल चुकी हैं।
इस सरकार में सीबीआई, सीवीसी प्रमुख वगैरह की नियुक्तियों में मर्यादाओं का पालन न करने की मिसालें मिल चुकी हैं। ऐसी संवैधानिक व्यवस्थाओं और कानूनी रियायतों का लाभ उठाने से रोकने के लिए उचित प्रावधान और अदालती आदेश स्वागतयोग्य है। हालांकि आपात स्थिति में अध्यादेश जारी करने से शायद सरकारों को रोकना सही नहीं होगा। इसके लिए शत्रे जरूर कड़ी की जा सकती हैं, ताकि कोई सरकार मनमानी न कर सके।
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