Friday, January 6, 2017

त्रि-भाषा फॉर्मूला


हिंदुस्तान की अनेकता में एकता की जिस खुशबू व रंगारंग विरासत पर दुनिया नाज करती है, उसमें यहां बोली जाने वाली भाषाओं की भी बहुत बड़ी भूमिका है। हर चंद मील के फासले पर जबान और बोलियां बदल जाती हैं। इनको सहेजने और आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाने के लिए जरूरी है कि उनका उचित प्रचार-प्रसार हो। ऐसे में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा दसवीं कक्षा तक त्रिभाषा फामरूला लागू किए जाने का फैसला नि:संदेह स्वागतयोग्य है। इससे हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत को सहेजने का शिक्षा के रूप में अवसर मिलेगा।इससे बोर्ड से सम्बद्ध 18 हजार स्कूलों में अब दसवीं क्लास तक हिंदी और अंग्रेजी के अलावा एक अन्य भारतीय भाषा को पढ़ाया जा सकेगा। छात्रों के पास इस तीसरी भाषा के तौर पर भारतीय संविधान की आठवीं सूची में सूचीबद्ध भाषाओं में से किसी एक को चुनने का विकल्प होगा। काबिलेगौर है कि इसमें फिलहाल असमिया, बंगाली, गुजराती, पंजाबी, कन्नड़, मलयालम, मराठी, उड़िया, कश्मीरी, संस्कृत, तेलुगू, मैथिली और उर्दू समेत 22 ऐसी भारतीय भाषाओं को सूचीबद्ध किया गया है, जो विभिन्न राज्यों के लोगों द्वारा बोली जाती हैं। इसके दो फायदे हैं। अव्वल तो हिंदी भाषी राज्यों के छात्रों को अपने ही देश की एक अन्य भाषा का ज्ञान होगा।
दूसरे, उन राज्यों में जहां हिंदी नहीं बोली जाती है, उन्हें अंग्रेजी और अपनी इलाकाई जबान के इलावा हिंदी को सीखने का मौका मिलेगा। इसे हम महज भाषाई नहीं बल्कि संस्कृतियों के आदान-प्रदान के रूप में देख सकते हैं; क्योंकि भाषा से सिर्फ उसकी लिपि या फिर बोली ही नहीं, बल्कि उसमें मौजूद साहित्यक, सांस्कृतिक और सामाजिक खजाने का भी बोध होता है। सीबीएसई से सम्बद्ध हजारों स्कूलों में लगभग ढाई करोड़ छात्र पढ़ते हैं। ऐसे में इन छात्रों को अपनी धनवान भारतीय भाषाई विरासत का ज्ञान होगा। वैसे भी भाषा, साहित्य और सांस्कृतियों को लोगों को जोड़ने और करीब लाने में मददगार होता है। ऐसे में ये कहना बेजा नहीं होगा कि इससे हमारी एकता को एक धागे में पिरोने और साम्प्रदायिक सौहार्द की डोर को मजबूत करने में मदद मिलेगी। हालांकि सीबीएसई के इस फैसले से अधिकतर निजी स्कूल खुश नहीं है। दरअसल, इन स्कूलों में तीसरी भाषा के तौर पर विदेशी भाषा को पढ़ाया जाता है। दो साल पूर्व इसी तरह का विवाद तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी के जरिए केंद्रीय विद्यालयों में पढ़ाई जाने वाली जर्मन भाषा को खत्म किए जाने को लेकर उठा था।
उस समय केंद्रीय विद्यालयों को जर्मन की जगह संस्कृत अथवा कोई अन्य आधुनिक भारतीय भाषा को पढ़ाने के निर्देश दिए गए थे। हालांकि उनका फैसला अमल में नहीं आ सका। त्रिभाषा फामरूले पर निजी स्कूलों के विरोध के पीछे ये दलील दी जा रही है कि भूमंडलीकरण के इस दौर में अंग्रेजी और हिंदी के अतिरिक्त तीसरी आधुनिक भारतीय भाषा को पढ़ाए जाने का फैसला उचित नहीं है। उनका कहना है कि अगर कोई छात्र विदेशी भाषा सीखना चाहता है और उसमें आगे अपना भविष्य बनाने का इच्छुक है, तो उसे इससे वंचित नहीं किया जाना चाहिए। देखा जाए तो निजी स्कूलों के इस विरोध में दम नहीं है; क्योंकि सीबीएसई ने विदेशी भाषा के विकल्प को पूरी तरह से खत्म नहीं किया है और इसे चौथी भाषा के रूप में चुनने की छूट दी है। वैसे भी हमारी नई पौध को भारत की मालामाल विरासत में विशेष महत्व रखने वालींिहंदुस्तानी भाषाओं का ज्ञानबोध कराना ज्यादा आवश्यक है।
गौरतलब है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति और एनसीआरटी के राष्ट्रीय पाठक्रम फ्रेमवर्क में त्रिभाषा फामरूले को माध्यमिक शिक्षा के स्तर तक क्रियान्वित किए जाने का स्पष्ट उल्लेख है। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के द्वारा दसवीं तक तीन भाषाओं को पढ़ाए जाने का फैसला इस फ्रेमवर्क के अनुकूल है। ऐसे में निजी स्कूलों को भी अब इस त्रिभाषा फामरूले का अनुपालन करना अनिवार्य होगा। हालांकि अभी ये स्पष्ट नहीं है कि दसवीं के बोर्ड इम्तेहान में इस तीसरी भाषा के अंक जुड़ेंगे या नहीं, फिर भी इसके दूरगामी परिणामों की अनदेखी नहीं की जा सकती है। इससे सीबीएसई से सम्बद्ध हजारों स्कूलों में ऐसे अध्यापकों की आवयकता होगी, जो इन आधुनिक भारतीय भाषाओं का ज्ञान रखते हों। यही नहीं इन क्षेत्रीय भाषाओं के ज्ञान से छात्रों को भी अनुवादक जैसे पदों पर नियुक्तियों के अवसर प्रदान होंगे। इस तरह सीबीएसई के इस फैसले से बहुत सी नौकरियों के सृजन होने की भी उम्मीद है।

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