Monday, May 9, 2016

ये ऑफिसियल कवियों का दौर है और विनोदकुमार शुक्ल की बनियान में छेद है.

सींखचों में बंद रहे कबूतर
जबतक आज़ादी के प्रतीक रूप में
नेता ने हवा में नहीं उड़ाये.
सैनिकों का खून सुर्ख लाल था
उनकी माँ का दूध सफ़ेद
पत्नी के आंसू में नमक
नेता की खद्दर फक्क सफ़ेद थी.
मेरे आगोश में सफ़ेद घर
बुदबुदाता है गौरैया की कहानी
जो अब घौंसले बनाने नहीं आती
उसे नहीं पता गौरैया विलुप्त हो रही है.
'प्रश्न खड़े करो'
सातवीं की किताब में लिखा है
'मेडिकल ही क्यों करना?'
नहीं पूछा, कोटा में सत्रह साल की
आत्महत्या करने वाली लड़की ने.
आत्महंता अपराध है,
शिक्षा हमें कातिल बन रही है.
जंगलों में आग क्यों फैलती है
जानवरों को आता है
पत्थर घिस के आग लगाना
खुद जल जाना.
आदमी शर्म से कभी खुद जला है?
सुना है,
सिर्फ दो लाख होने थे
मानव धरती पे.
हम चार लाख गुना ज्यादा हैं.
गणित ने हमें रैशनल बना दिया है.
ये ऑफिसियल कवियों का दौर है
और विनोदकुमार शुक्ल की बनियान में छेद है.
कविता अबतक चीथड़ों में है.
'शर्माजी का लौंडा' दो लाख रूपये महीना कमाता है.
अख़बार ने मेरी कविता पे एक ढेली भी नहीं दी.

No comments: