Saturday, October 10, 2015

बेरोज़गार की किताब से


रोटियों के पैसे किसने चुकाए तुम्हारे
कॉफ़ी की ये आदत
दिन में दो दफे चाहिए तुम्हें.
पांच रूपये की पड़ती है घर बनाओ तो,
पचास की बाहर.
शुक्र है सिगरेट नहीं पीते.

तुम्हारे कपडे हैं न, ठाठ वाले,
अठरह सौ की वो शर्ट
अच्छे घर में जन्मने का फल है.
साठ प्रतिशत आबादी नहीं तो
रोटी जुगाड़ रही है,
सुबह से शाम.


तुम्हें अपने बाप से शिकायतें हैं,
जिसकी नौकरी से
बिल भरे जाते हैं तुम्हारे.
टाटा तो वो भी पैदा नहीं हुआ था.
उसने मत्था फोड़ा, हाथ-पांव-दिमाग खपाये
तब तुम पढ़ पाये.

रोटियों की दूकान पे उधारी नहीं चलती,
दोस्त बस भरम हैं,
फ़ोन कर लें एक दफ़े महीने में,
बस बहुत है.

देह वाली भी कुछ कमाती तो है.

सड़क पे पड़े पत्थर तुम,
हटो!!!

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