‘सुजन, ये कौन खड़े है ?’ बन्धु ! नाम ही है इनका बेनाम । |
‘कौन करते है ये काम ?’ काम ही है बस इनका काम । |
‘बहन-भाई’, हां कल ही सुना, अहिंसा आत्मिक बल का नाम, |
‘पिता! सुनते है श्री विश्वेश, जननि?’ श्री प्रकॄति सुकॄति सुखधाम। |
हिलोरें लेता भीषण सिन्धु पोत पर नाविक है तैयार |
घूमती जाती है पतवार, काटती जाती पारावार । |
‘पुत्र-पुत्री है?’ जीवित जोश, और सब कुछ सहने की शक्ति; |
‘सिद्धि’- पद-पद्मों मे स्वातन्त्र्य-सुधा-धारा बहने की शक्ति। |
‘हानि?’ यह गिनो हानि या लाभ, नहीं भाती कहने की शक्ति, |
‘प्राप्ति ?’- जगतीतल की अमरत्व, खड़े जीवित रहने की शक्ति। |
विश्व चक्कर खाता है और सूर्य करने जाता विश्राम, |
मचाता भावों का भू-कम्प, उठाता बांहें, करता काम । |
‘देह ?’- प्रिय यहाँ कहाँ परवाह टँगे शूली पर चर्मक्षेत्र, |
‘गेह ?’- छोटा-सा हो तो कहूँ विश्व का प्यारा धर्मक्षेत्र ! |
‘शोक ?’- वह दुखियों की आवाज़ कँपा देती है मर्मक्षेत्र, |
‘हर्ष भी पाते है ये कभी ?’ -तभी जब पाते कर्मक्षेत्र। |
फिसलते काल-करों से शस्त्र, कराली कर लेती मुँह बन्द; |
पधारे ये प्यारे पद-पद्म, सलोनी वायु हुई स्वच्छंद । |
‘क्लेश ?’- वह निष्कर्मों का साथ कभी पहुँचा देता है क्लेश; |
लेश भी कभी न की परवाह जानते इसे स्वयम सर्वेश। |
‘देश ?’- यह प्रियतम भारत देश, सदा पशु-बल से जो बेहाल, |
‘वेश ?’- यदि वॄन्दावन में रहे कहाँ जावे प्यारा गोपाल । |
द्रौपदी भारत माँ का चीर, बढ़ाने दौड़े यह महाराज, |
मान लें, तो पहनाने लगूँ, मोर-पंखों का प्यारा ताज। |
उधर वे दुःशासन के बन्धु, युद्ध-भिक्षा की झोली हाथ; |
इधर ये धर्म-बन्धु, नय-बन्धु, शस्त्र लो,कहते है-‘दो साथ।’ |
लपकती है लाखों तलवार, मचा डालेंगी हाहाकार, |
मारने-मरने की मनुहार, खड़े है बलि-पशु सब तैयार। |
किन्तु क्या कहता है आकाश ? हॄदय ! हुलसो सुन यह गुंजार, |
‘पलट जाये चाहे संसार, न लूंगा इन हाथों हथियार।’ |
‘जाति?’- वह मजदूरों की जाति, ‘मार्ग ?’ यह काँटों वाला सत्य; |
‘रंग?’ -श्रम करते जो रह जाय, देख लो दुनिया भर के भॄत्य । |
‘कला?’- दुखिःयों की सुनकर तान, नॄत्य का रंग-स्थल हो धूल; |
‘टेक ?’- अन्यायों का प्रतिकार, चढ़ाकर अपना जीवन-फ़ूल । |
‘क्रान्तिकर होंगे इनके भाव ?’ विश्व में इसे जानता कौन? |
‘कौनसी कठिनाई है?’- यहीं, बोलते है ये भाषा मौन ! |
‘प्यार ?’-उन हथकड़ियों से और कॄष्ण के जन्म-स्थल से प्यार ! |
‘हार ?’- कन्धों पर चुभती हुई अनोखी जंजीरें है हार ! |
‘भार ?’- कुछ नहीं रहा अब शेष, अखिल जगतीतल का उद्धार ! |
‘द्वार ?’ उस बड़े भवन का द्वार, विश्व की परम मुक्ति का द्वार ! |
पूज्यतम कर्म-भूमि स्वच्छंद, मची है डट पड़ने की धूम; |
दहलता नभ मंडल ब्रम्हाण्ड, मुक्ति के फट पड़ने की धूम ! |
( १९१३ , हिमतरंगिणी) |
(महात्मा गाँधी के दक्षिण अफ़्रीका संग्राम पर) |
प्यार करना बहुत ही सहज है, जैसे कि ज़ुल्म को झेलते हुए ख़ुद को लड़ाई के लिए तैयार करना. -पाश
Tuesday, April 7, 2015
निःशस्त्र सेनानी / माखनलाल चतुर्वेदी
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1 comment:
भावार्थ कहा हैं
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