Monday, August 26, 2013

Friend, Gulzar!




साहिल पे रखकर ख़ामोशी
उदास चाँद
ज्वार-भाटे भी नहीं लाता;
लहरों पे बहने का सुकूं
दिन की ख़ामोशी में गुजरता है.

साथी तेरी याद में
सुनसान गली के, वीरान मकाँ में
'गुलज़ार' पकड़े
तन्हाई गुजार रहा हूँ!

On Gulzar's B'day, 18 Aug

3 comments:

ANULATA RAJ NAIR said...

वक़्त को आते न जाते न गुजरते देखा
न उतरते हुए देखा कभी इलहाम की सूरत
जमा होते हुए एक जगह मगर देखा है

शायद आया था वो ख़्वाब से दबे पांव ही
और जब आया ख़्यालों को एहसास न था
आँख का रंग तुलु होते हुए देखा जिस दिन
मैंने चूमा था मगर वक़्त को पहचाना न था

याद किया तुम्हें "गुलज़ार"...हर दिन..
अनु

VIVEK VK JAIN said...

मैं कमेंट्स का आप्शन बंद इसलिए किये रहता था, क्यूंकि 'बढ़िया', 'शानदार' जैसे कमेंट्स से तंग आ चुका था. जब कोई एसे कमेंट करता है तो लिखा सार्थक लगता है. शुक्रिया अनु!

अरुण चन्द्र रॉय said...

badhiya kavita