एक अँधेरा कमरा, रात का बीतता तीसरा पहर और रह-रह के आँखों पे छाता तेरा अक्स....तन्हाई ज़ालिम नहीं होती, तन्हाई में तुम खुद को टटोल सकते हो....और मैंने टटोला तो मैं नहीं वहां, तुम थे...मेरे ज़िस्म में, मेरे जेहन में....
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मुन्तज़िर मैं नहीं तेरा,
न ही चाहता हूँ तुझे.
इस नज़्म को तो बस
तन्हाई में रूह से
निकलने की बुरी आदत है!
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इस फलक पे चाँद में
तू नहीं दिखती अब.
इश्क में था
तो शायद कोई और फलक
ओढ़े था हमें!
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उस धुंधली गली में
तुम चिपक जाते थे मुझसे.
वो एक-दो बोसे
मेरे गालों पे चिपके हैं अब भी.
सीने में छुपा है तुम्हारा चेहरा.
शर्ट की जेब से
अब भी तुम्हारी बू आती है.
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आहटें छुपाने
हाथों में ले गयी चप्पलें.
चलना अँधेरे में बड़ी दूर.
मुस्कुराना बिना कुछ कहे ही.
फिर 'कुछ नहीं' में सारा कुछ कह देना.
मेरी ज़िन्दगी में
कोई 'नयी' आई है 'शोना'.
इस 'नयी' संग
सारा कुछ दुहराने का मन नहीं होता.
'शोना' तुम अतीत हो,
फिर वर्तमान क्यूँ बदल रहे हो?
Pic: Devika Agrawal's Painting 'Girl Face'. Kash! Maine ise banaaya hota!
2 comments:
बहुत सुंदर ....
कोमल भावों से भरपूर!!
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