अब भी याद आता है वो आँगन
वो अमरुद का पेड़
और वो चंद दीवारों से तृप्त
छोटा सा घर.....
जैसे बचपन में ही
वहीं कहीं समा गया हूँ!
जैसे दिल वहीं कहीं
अटका के आ गया हूँ.
अब भी उलझी-सुलझी नींद में
तुम्हारी थपकी सुनता हूँ,
ख्वावों की कश्ती भी
अक्स पर तुमपर रूकती है.
जब भी खुद को चुनता हूँ,
हर रंग तुम्हारे चुनता हूँ.
तुम्हारे वो भारी हाथ
और तुम्हारा वो प्यार!
जैसे दिल वहीं कहीं
अटका के आ गया हूँ.
पक्की कठोर सड़कों से
मिट्टी ज्यादा भली क्यूँ?
क्यूँ भीड़ में मैं
अपनापन ढूंढूं?
क्यूँ आँख तले सपने में
अपना गाँव बुनता हूँ!
क्यूँ यादों में बिखरा बिखरा
मिटकर रोज ही बनता हूँ!
दूर भले हो लेकिन
तुम्हारे लफ्ज़ मन से
चिपके हैं येसे-
दोराहे पर समझाते
झूठे सच से तो अच्छा हूँ मैं!
कभी पार पा गया हूँ,
कभी डूब कर तुममे ही
समा गया हूँ!
जैसे दिल वहीं कहीं
अटका के आ गया हूँ.
2 comments:
wow...brilliance...bachpan...yaadein...maaa....totally loved it....bauhat acchi lagi!!
Iss kavita se..garama garam bhaat daal
aur sarso bahri mirch ke achaar ka swaad yaad aa gaya..
likhte raho dost yuhi..aur yaad dilate raho
mere dehatipane ki..
God bless!!
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