मैं सोता हूँ,
मिन्नतें मांग कर,
कि कल की सुबह भी खुबसूरत हो.
जैसा कई सदियों पहले हुआ करती थी.
पर, हर सुबह,
देती है खबर,
किसी के मरने की,
धोखे की,
आतंक की,
परातंत्र की.
हर सुबह में पता हूँ,
इक गंध.
जो
धकियाती हुई चली जाती है,
मेरे मन के भीतर.
मजबूर कर देती है सोचने-
कि मैं इतना मजबूर क्यूँ हूँ?
क्यूँ नही कर सकता हर सुबह प्रकाशित,
इक अलौकिक जीवन से.
क्या आप की सुबह भी कुछ येसी ही है?????
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