Saturday, May 27, 2017

नेहरू अगर बड़े हो सके तो इसलिए भी कि वे अपने गुरु से अपनी असहमति बेझिझक और निरंतर व्यक्त कर सके | Apoorvanand

भारत वही होगा जो हम हैं. हमारे विचार और कार्य ही उसे आकार देंगे...हम उसके बच्चे हैं, आज के भारत के नन्हें टुकड़े, लेकिन हम कल के भारत के जनक भी हैं. अगर हम बड़े हैं तो भारत भी बड़ा होगा, अगर हम क्षुद्र मस्तिष्क और संकीर्ण नज़रिए वाले हुए तो भारत भी वैसा ही होगा. अतीत में हमारी परेशानियों की वजह यही संकरी निगाह और तुच्छ कार्य रहे, जो भारत की महान सांस्कृतिक विरासत से इतना बेमेल था.’
जवाहरलाल नेहरू आज़ादी मिलने के साल भर बाद स्वतंत्रता दिवस पर भारत के अपने लोगों को याद दिला रहे थे कि भारतीय होने का अर्थ अगर कुछ हो सकता है तो वह है क्षुद्रता, संकीर्णता और फूहड़पन से संघर्ष. इसी के आस पास भारत की औद्योगिक नीति के बारे में बात करते हुए उन्होंने समाज में बढ़ती आर्थिक असमानता की ओर इशारा किया और कहा कि अब यह फूहड़पन की हद तक बढ़ गई है.
आर्थिक या सामाजिक गैर बराबरी इसलिए बुरी है कि वह फूहड़ है, यह अब हम शायद ही किसी को कहते हुए सुनें. लेकिन नेहरू के लिए किसी भी नीति या क्रिया की कसौटी यही थी कि क्या वह हमारे अपने संकीर्ण स्वार्थ से प्रेरित है या वह किसी अधिक बड़े उद्देश्य को हासिल करने में कारगर है. क्या वह हमें जाती ज़िंदगी में और सामाजिक रूप से भी उदात्त के निकट ले जाती है या अपने ही छोटे दायरे में और भी अधिक कैद कर देती है?
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने, जो गांधी के निकटस्थ मित्रों में थे और एक समय उनके उत्तराधिकारी माने जाते थे और अपने समय के सबसे कुशाग्र मेधा के धनी भी, नेहरू की मृत्यु के बाद कहा कि हमारे बीच का आख़िरी सभ्य व्यक्ति नहीं रहा.
सभ्य और सुसंस्कृत बनना हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए, कि आर्थिक सम्पन्नता और शक्ति और उसके लिए दो शर्तें हैं: निर्भय होना और साधन और साध्य में एकता रखना. गांधी की याद अगर नेहरू अपने देशवासियों को बार-बार दिलाते थे तो मुख्यतः इसीलिए कि उन्होंने निर्भयता और साधन और साध्य की एकता की अनिवार्यता का मंत्र अपने देशवासियों, बल्कि पूरे विश्व को दिया था.
निर्भयता के बिना महानता संभव नहीं. इस निर्भयता का अर्थ यह है कि हम अपने निर्णयों और कार्यों की जिम्मेदारी लेने से कतराएं. स्वाधीनता आन्दोलन की विशेषता यही थी और गांधी ने यही सिखाया था कि तुम्हारे किसी भी कार्य में गोपनीयता और षड्यंत्र की बू नहीं आनी चाहिए. इसीलिए वे अपने हर अभियान का नोटिस उसे भी देते थे जिसके विरुद्ध वह शुरू किया जाने वाला था. चंपारण में निलहे साहबों को, अंग्रेज़ सरकार के हर महकमे को उन्होंने बताया कि वे क्या करने जा रहे हैं. सशस्त्र क्रांतिकारियों की वीरता में कोई संदेह था, लेकिन वह गोपनीयता और षड्यंत्र के बिना संभव थी.
नेहरू गांधी के शिष्य की तरह ही निष्कवच और उत्तरदायित्वपूर्ण निर्भयता के हामी थे. इसलिए उनमें से किसी ने वे जो कर रहे थे, उसके परिणाम से, जो कि प्रायः दीर्घ कारावास था और वह भी उसका सिलसिला, बचने की कोई कोशिश की.
नेहरू जैसा व्यक्तित्व अकेलेपन में भी समझा जा सकता है, लेकिन ऐसी शख्सियत शायद अपने जैसी ही और शख्सियतों के संसर्ग के बिना बन नहीं सकती
नेहरू जैसा व्यक्तित्व अकेलेपन में भी समझा जा सकता है, लेकिन ऐसी शख्सियत शायद अपने जैसी ही और शख्सियतों के संसर्ग के बिना बन नहीं सकती. और नेहरू का वक्त कितना निराला और भव्य है: तिलक और गोखले से लेकर, जिन्हें गांधी ने हिमालय और प्रशांत सागर की उपमा दी, गांधी, वल्लभ भाई पटेल, सरोजिनी नायडू, मौलाना आज़ाद, अली बंधु, सुभाषचंद्र बोस, अम्बेडकर या राजगोपालाचारी इनमें से कुछ नाम हैं. आप रवीन्द्रनाथ टैगोर और इकबाल को भूलें या प्रेमचंद, भारती, निराला और प्रसाद जैसे नामों को भी. यह महानता का युग था और इनमें से हर कोई एक दूसरे से रौशन भी हो रहा था. हर कोई दूसरे की कीमत जानता था और इस तरह उसकी अपरिहार्यता भी.
नेहरू अगर बड़े हो सके तो इसका कारण यह भी है कि वे अपने गुरु से अपनी असहमति बिना झिझक और भय के निरंतर व्यक्त कर सके. उन्होंने स्पष्ट ढंग से गांधी को एकाधिक बार कहा कि वे ज़मींदारों के प्रति उनकी सहानुभूति को नहीं समझ पाते और भारतीय गांवों के प्रति उनके अतिरिक्त मोह को भी नहीं.
उसी तरह धर्म के मामलों में गांधी से नाइत्तफाकी नेहरू ने कई बार जाहिर की. इनमें से एक प्रसंग दिलचस्प है. गांधी हिंदू धर्मावलंबियों को उदारता और सहिष्णुता की याद दिला रहे थे, जो उनके मुताबिक़ हिंदू धर्म की आतंरिक विशेषता थी. इनमें सबसे कठिन जीव वे थे जो खुद को सनातनी मानते थे. 1933 के एक ख़त में गांधी ने लिखा कि सनातनियों से उनका संघर्ष अधिक से अधिक दिलचस्प और कठिन होता जाता है. गांधी की समझ थी कि उनकी सफलता यह है कि ये सनातनी अपनी दीर्घ निद्रा और आलस्य से जाग रहे हैं. उनका विश्वास था कि अभी भले ही वे गांधी को गालियां दे रहे हों, लेकिन उनके अहिंसा के लेप से यह तूफ़ान शांत हो जाएगा...लेकिन मैं जितना ही गालियों को नज़रअंदाज करता जाता हूं, वे उग्र होती जाती हैं. लेकिन यह शमा के इर्ग गिर्द नाचने वाले फतिंगों का मृत्यु नृत्य ही है.’
नेहरू गांधी के सनातनियों से इस संघर्ष में उनके इस विश्वास से सहमत थे. उन्होंने हरिजन’ का अंक मिलने के बाद एक पत्र में उन्हें लिखा, ‘मुझे बेचारे सनातनियों पर दया आती है. उनके क्रोध, गालियों और उग्र शाप को देखते हुए मुझे लगता है कि वे इस सूक्ष्म आक्रमण के योग्य नहीं. मूर्खता, कट्टरता और विशेषाधिकार की ताकत हैरतअंगेज़ है. इस मेल को महात्मा और संत भी नहीं उलट सकते जब तक कि हालात इसके लिए ज़मीन तैयार कर दें.’
नेहरू की ज़िंदगी घाटियों के फूलों की खुशबू और हिमाच्छादित ऊंचाइयों की पुकार का जवाब थी. अपने मित्र गुरु की तरह ही, अधूरी, लेकिन ईमानदार
नेहरू ने लिखा कि हरिजन’ एक भी कट्टर सनातनी का हृदय परिवर्तन कर पाएगा लेकिन जिन अनेकानेक लोगों ने सामाजिक बुराइयों की ओर से आंखें मूंद रखी हैं, उनपर यह ज़रूर कुछ असर डाल सकेगा.
नेहरू का यह पत्र उस दौर के नेताओं में परस्पर आलोचना की संस्कृति का अच्छा उदाहरण है. इसका कि आपको विश्वास है कि आपकी आलोचना सुनी जाएगी, इसलिए इसमें कटुता नहीं, सद्भाव की सुगंध है. इस पत्र में आखिर में वे उस लिफ़ाफ़े पर टिप्पणी करते हैं जिसमें पत्र भेजा गया था: ‘आपका पत्र लिफ़ाफ़े के नाम पर जिस चीज़ में लपेट कर भेजा गया, उसपर मुझे ऐतराज करना ही होगा. अगर वल्लभभाई इसके लिए जिम्मेदार हैं, तो उनके प्रति अपनी सारी मुहब्बत के बावजूद मुझे कहना होगा कि लिफाफा बनाना उनके बस का नहीं.’
आगे वे लिखते हैं और यह दिलचस्प है, ‘मेरे इस सतहीपन के लिए माफ़ करेंगे. लेकिन मुझे अपने हीरे तराशे हुए और चिकने अच्छे लगते हैं. आपने हमें जिंदगी को शानदार तरीके से जीने की कला और शैली सिखाई है. वही असल बात है, लेकिन हम जीवन की छोटी छोटी चीज़ों में अंदाज और कलात्मकता को क्यों नज़रअंदाज करें? हममें से ज़्यादातर लोग हिममंडित ऊंचाइयों तक नहीं पहुंच सकते. क्या आप हमें घाटियों के फूलों से भी वंचित रखेंगे?’
नेहरू की ज़िंदगी घाटियों के फूलों की खुशबू और हिमाच्छादित ऊंचाइयों की पुकार का जवाब थी. अपने मित्र गुरु की तरह ही, अधूरी, लेकिन ईमानदार.


Wednesday, May 17, 2017

हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच 1947 में हुआ बंटवारा आज भी जारी है

कई सालों से मैं बड़े फ़ख्र से ख़ुद को दक्षिण एशियाई मूल का बताती थी. लाखों लोगों की तरह मेरे मां-बाप भी उसी ज़मीन पर पैदा हुए थे, जिसे अब हिंदुस्तान के नाम से जाना जाता है.
बंटवारे के वक़्त मेरे अब्बा का परिवार पाकिस्तान चला आया था. मेरे दादा सिविल सर्विस में थे और अपने बाकी मुस्लिम साथियों की तरह उन्हें भी उम्मीद थी कि नई बन रही ब्यूरोक्रेसी में बेहतर पद मिलेंगे.
वहीं दूसरी तरफ मेरे नाना कांग्रेस के पक्के समर्थक थे, वे लखनऊ में एक प्रो-कांग्रेस अख़बार भी निकाला करते थे. वे हिंदुस्तान न छोड़ने की अपनी बात पर अड़े रहे जबकि उन्हें ये अंदाज़ा था कि आने वाले दशकों में अपने लिए बेहतर ज़िंदगी बनाने की उम्मीद में उनके बच्चे हिंदुस्तान छोड़ देंगे.
इसके तकरीबन 25 साल बाद जब मेरे मां-पापा की शादी हुई, तब तक मेरे अब्बा पाकिस्तान से निकलकर अमेरिका पहुंच गए थे और वहां एक इंजीनियर के बतौर काम कर रहे थे.
उनका निकाह फोन पर हुआ, जिसके बाद मेरी मां भी अमेरिका पहुंचीं. मैं और मेरी बहन की पैदाइश और परवरिश भी वहीं हुई.
जब भी लंबे सफ़र पर जाने लायक पैसे इकट्ठे होते, तब हम सालों में कभी पाकिस्तान तो कभी हिंदुस्तान जाया करते. मेरी बहन और मेरी हमारे दोनों तरफ के भाई-बहनों से ही खूब पटती थी.
इतनी कि हमें कभी दोनों देशों के बीच चल रही परेशानियों का हमारी पहचान से जुड़े होने का कोई एहसास ही नहीं हुआ. यह तो बहुत बाद में पता चला कि ये मासूमियत भी बमुश्किल ही मिल पाती है.
अमेरिका से ग्रेजुएशन करने के बाद मैंने पाकिस्तान और हिंदुस्तान दोनों ही जगह इंटर्नशिप के लिए अप्लाई किया. मैं चाहती थी कि ‘मैं कहां जाऊंगी’ सवाल का जवाब मेरी क़िस्मत तय करे.
और फिर मुझे नई दिल्ली की एक मानवाधिकार संस्था के साथ काम करने का मौका मिला. इस एनजीओ ने ही मुझे सलाह दी कि अपनी मां की भारतीय नागरिकता के आधार पर मैं पर्सन ऑफ इंडिया ओरिजिन (पीआईओ) कार्ड बनवाने के लिए अप्लाई करूं.
इससे मुझे हिंदुस्तान में काम करने का मौका तो मिलेगा ही, साथ ही मैं बिना वीज़ा के सफ़र भी कर सकूंगी. मेरी एप्लीकेशन स्वीकार होने में कोई अड़चन नहीं आई और कुछ ही दिनों में मुझे ये स्लेटी बुकलेट मिली, जिसके सहारे में आगे के 17 सालों तक हिंदुस्तान आती-जाती रही.
इस कार्ड के मिलने के बाद मेरा यहां आना-जाना तो बढ़ा ही, मैं यहां लंबे वक़्त के लिए रुकने भी लगी. मैंने दिल्ली में रहकर ही अपनी पीएचडी पूरी की और इस शहर में मुस्लिम औरतों के अनुभवों पर एक क़िताब भी लिखी.
इस बीच हिंदुस्तान के साथ बढ़ते इस रिश्ते के साथ मेरा पाकिस्तान से रिश्ता भी बढ़ता रहा. मेरी बहन की शादी पाकिस्तान में हुई और वो वहीं बस गई.
कुछ समय बाद मेरे मां-पापा भी अमेरिका से आकर वहीं रहने लगे. कुछ सालों बाद मुझे भी लाहौर के कॉलेज में नौकरी का ऑफर मिला, जिसे मैंने खुशी-खुशी स्वीकार भी कर लिया.
इसकी पहली वजह तो ये थी कि मैं कराची में रहने वाले अपने परिवार के करीब हो जाऊंगी, दूसरा बॉर्डर से नज़दीक होने के कारण मैं अपने काम के सिलसिले और दोस्तों से मिलने आसानी से हिंदुस्तान आ-जा सकती थी.
तब मैंने नेशनल आइडेंटिटी कार्ड ऑफ पाकिस्तान के लिए अप्लाई किया, इससे मुझे वही सारी सुविधाएं मिलतीं, जो हिंदुस्तान में पीआईओ कार्ड से मिलती हैं.
मेरे पाकिस्तानी और हिंदुस्तानी दोस्त और रिश्तेदार इस बात पर बड़ा आश्चर्य व्यक्त करते पर मैं जानती थी कि मैं ख़ुशकिस्मत थी, लेकिन मुझे इसमें कुछ ग़लत भी नहीं लगता था. मैं मूल रूप से पाकिस्तानी भी हूं, हिंदुस्तानी भी. तो मुझे क्यों सिर्फ एक को चुनना चाहिए?
पिछले हफ़्ते इस बार के सेमेस्टर ख़त्म होने के बाद मैं ख़ुद को अपने जन्मदिन पर तोहफा देना चाहती थी, और ये तोहफा था धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) घूमना.
कुछ रोज़ पहले मैं जब लौट रही थी तब बॉर्डर पर मुझसे इमीग्रेशन के कर्मचारियों ने पूछा कि मेरे पास पीआईओ कार्ड और नेशनल आइडेंटिटी कार्ड ऑफ पाकिस्तान दोनों कैसे हैं. मैंने उन्हें ईमानदारी से जवाब दिया कि मेरे अब्बा पाकिस्तानी हैं मां हिंदुस्तानी, और इस लिहाज़ से मैं दोनों हूं.
आम तौर पर जब मैं ये जवाब देती थी तब अमूमन सरहद के दोनों तरफ ही इमिग्रेशन से मुझे सुनने को मिलता था, वाह, आप तो बड़ी लकी हैं मैडम! इसके बाद वो मेरे पासपोर्ट पर स्टाम्प लगा देते थे.
इस बात से मैं हमेशा एक उम्मीद से भर उठती थी कि दोनों देशों के बीच भले ही कितने उतार-चढ़ाव रहे हों, पर दोनों ही ओर के अधिकतर लोग इस बंटवारे के बेतुकेपन को समझते हैं.
पर उस रोज़ ऐसा नहीं हुआ. इमीग्रेशन का वो कर्मचारी मेरे पीआईओ कार्ड के साथ गायब हुआ और कोई घंटे भर बाद लौटा. उसके पास एक पत्र भी था, जिस पर मुझे दस्तख़त करने के लिए मजबूर किया गया.
इसमें लिखा था कि मेरा पीआईओ कार्ड ज़ब्त किया जा रहा क्योंकि मैं पाकिस्तानी मूल की हूं, जिस वजह से मैं हिंदुस्तानी मूल की नहीं हो सकती.
तो वो खौफ़नाक दिन आ चुका था. इतने सालों तक अपनी जिस दक्षिण एशियाई पहचान पर मुझे फ़ख्र था, उसमें से आज मैं एक को चुनने के लिए मजबूर थी.
जब मैंने उनसे पूछा कि उन्हें यह करने का हक़ है क्या, तब मुझे जवाब मिला, ‘भारत सरकार के जो चाहे वो करने का अधिकार है.’ बस! इतना ही.
मैं जानती हूं कि मेरी ये कहानी 70 साल पहले हुए बंटवारे के फैसले से हुई लाखों मौतों और बिखरे हज़ारों परिवारों के सामने कुछ भी नहीं है.
वज़ीरा ज़मींदार ने बंटवारे पर लिखा है, ‘1947 का ये बंटवारा आने वाले कितने दशकों तक चलता रहा था, ये बंटवारा आज भी जारी है, एक सरहद जहां कभी आने-जाने का रास्ता बन सकता था, वहां कभी न टूटने वाली एक दीवार खड़ी हो चुकी है.’
जैसे-जैसे हमारे देशों के बीच रिश्ते ख़राब हो रहे हैं, मुझे अपना ये छोटा-सा नुकसान उन अनगिनत लोगों के दुख के मुक़ाबले बहुत छोटा लगने लगा है, जिन्हें सरहदों के इस बंटवारे से मिला दर्द हर रोज़ झेलना पड़ता है…
अपने बच्चों से बिछड़े मां-बाप, भाई-बहनों से बिछड़े भाई-बहन, वे मछुआरे जो पानी के बीच खिंची अनदेखी सरहद को अनजाने में पार करने के जुर्म में सालों जेल में रहे, सीमा के पास रहने वाले वे परिवार, जो अगली फायरिंग के डर के साये में रोज़ जीते हैं.
कई बार दोनों देशों के रिश्ते सामान्य करने की कोशिशें भी की गई हैं पर अब वे भी ख़त्म हो रही हैं. मिसाल के तौर पर बीते दिनों ‘पीस विज़िट’ (शांति यात्रा) पर आए पाकिस्तानी स्कूली छात्रों के एक डेलीगेशन को सरहद पर बढ़े तनाव के चलते वापस भेज दिया गया.
वहीं पिछले हफ़्ते एक और आदेश आया जिसके मुताबिक इलाज के लिए हिंदुस्तान आने वाले पाकिस्तानियों को वीज़ा मिलना और मुश्किल होगा. ये एक तरह से आम लोगों को उनकी ज़िंदगी बचा सकने वाले इलाज से महरूम करने जैसा है.
और ज़ाहिर है, जैसा हमेशा से होता आया है पाकिस्तान सरकार की तरफ से इन नियमों का जवाब ऐसे ही और कोई नियम बनाकर दिया जाएगा.
यानी इशारा साफ है: दोनों देशों के लोगों के बीच में कोई भी सकारात्मक रिश्ता- चाहे वो विचार, जानकारी, कोई कौशल साझा करना हो या प्यार-मुहब्बत- फ़ौरन हमेशा के लिए तोड़ दिया जाएगा.
आने वाले दिनों में कई और पीआईओ कार्ड ज़ब्त किए जाएंगे, कई वीसा रिजेक्ट किए जाएंगे; दीवारें और ऊंची और मज़बूत कर दी जाएंगी, पर इस परेशानी का फिर भी कोई हल नहीं निकलेगा.
सदियों से साथ-साथ रहने, एक जैसी रवायतें और विरासत साझा करने और प्यार की नींव पर बने रिश्ते को इतनी आसानी से नहीं तोड़ा जा सकता.
वे हमें भटकाने-बहलाने की कोशिश करेंगे, हमें यकीन दिलाया जाएगा कि हम मौलिक रूप से ही अलग हैं. हमें एक-दूसरे से नफ़रत करने को मजबूर किया जाएगा पर हमें ऐसी हर कोशिश के ख़िलाफ़ खड़े होना होगा.
हमें बताना होगा कि हमारी जड़ों का, हमारे मूल का फैसला कागज़ के चंद टुकड़ों, प्लास्टिक के कार्डों या इन चमकीली बुकलेट से नहीं होगा, जिसे आसानी से हमसे छीना जा सकता है.
हमारी जड़ें, हमारा प्यार हमारे शरीरों पर लिखा है, हमारी रूह में है, हमारी ज़बान, संस्कृति, इतिहास में है, और वे जितना भी चाहे, राजनीति के दांव-पेंचों से इसे मिटाया नहीं जा सकता.
निदा लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज, लाहौर में पढ़ाती हैं.
Source: http://thewirehindi.com/8895/the-ongoing-partition-what-happens-when-you-are-both-indian-and-pakistani/