भाईसाहब को पापा नहला रहे हैं. भाईसाहब ज्यादा खुश नहीं हैं. उन्हें पानी में 'फच्च... फच्च...' करना अच्छा लगता है और पापा हमेशा मना करते हैं. थोड़ी देर में चाचू आ जाते हैं और नहलाने का ऑफर देते हैं. चाचू को देख भाईसाहब बहुत खुश हैं. पापा तुरंत 'हां' कर देते हैं. अब चाचू भाईसाहब को नहला रहे हैं और भाईसाहब बड़े खुश हैं, इतना कि इनकी हंसी सुन सुनकर घर के बाकि लोग वाशरूम के बाहर खड़े हो गए हैं. भाईसाहब ने बहुत ज्यादा फच्च... फच्च... किया है, चाचू थोड़े भींग गए हैं लेकिन नहलाकर बड़े सुकून में हैं. भाईसाहब चाचू से भी ज्यादा खुश हैं, उन्हें उनके मन का करते हुए नहलाया गया है.
चाचू अनुसार सुरेंद्र झा 'सुमन' जी के शब्दों में कहें तो दृश्य कुछ इस तरह का रहा -
दाख मधुर, मधु मधुर पुनि मधुर सिता रस घोल
ताहू सँ बढ़ि - चढ़ि मधुर लटपट तोतर बोल।
अद्भुत शिशु-संसार ई जतय अबोधे बुद्ध
अक्षर अक्षर क्षरित जत अटपट भाषे शुद्ध।
लुलितकेश, तन नगन, मन मगन, धूसरित पूत
राग द्वेष लव लेश नहि शिशु अद्भुत अवधूत।
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