#savebuxwahaforest #buxwahaforestmovement
कहानी ऐतिहासिक है. अंग्रेज़ों ने दो सौ साल हमपर राज़ किया. हमारे सारे संसाधन लूटे. हमारे जंगलों से 1000 -1000 साल पुराने पेड़ काट के ले गए. उनको ढोने के लिए हाथियों को पीट-पीट कर पालतू बनाया गया. अगर वहां आदिवासी या जनजातियां थीं तो उन्हें बन्दूक की दम पर, उलटे सीधे नए कानून बनाकर खदेड़ा गया. फिर साफ़ हुए जंगल से खनिज सम्पदा (mineral wealth) का दोहन किया गया, और ऐसी कंपनी चलाने की परमिशन सिर्फ अंग्रेज़ों को हुआ करती थी. हुआ ये कि कई आदिवासी आंदोलन उठ खड़े हुए- भील विद्रोह, संथाल विद्रोह, कोल विद्रोह, मुंडा विद्रोह, छोटा नागपुर विद्रोह जैसे विद्रोह (Revolts) हुए. हालाँकि अंग्रेजी राज़ था, राजतंत्र था. मामला सिफर रहा. लोग मरते रहे, दोहन होता रहा. जंगल कटते रहे. ज़मीन बंजर होती रही. अकाल पड़ते रहे. भारतीय सेकंड क्लास सिटीजन (दोयम दर्जे के नागरिक) और यूँ कहें तो लगभग गुलामों की तरह जीते रहे. मनमाने, अपने तरीके की रिपोर्ट्स, अपने तरीके के लॉ आते रहे.
बात 1947 के बाद की है हम स्वतंत्र हो चुके थे. इतना सबकुछ उजड़ जाने के बाद भी वन सम्पदा में हम समृद्ध थे. 1970 के दशक शुरुआत में उत्तर प्रदेश (अब उत्तराखंड) के एक हिस्से में जंगलों की कटाई व्यापक रूप से हो रही थी. वहां के किसानों ने इसका विरोध किया....जमकर विरोध किया. रेणी में वन विभाग और ठेकेदारों को 2400 पेड़ काटने थे तो गौरादेवी जी के नेतृत्व में 27 महिलाओं ने मात्र वहां खड़े होकर, प्राणों की बाजी लगाकर पेड़ो का कटना रुकवा दिया. आज़ादी मिले मात्र पच्चीस साल हुए थे. गांधी जी के मूल्य और उनके कुछ शिष्य अभी भी ज़िंदा थे. देखते देखते एक आंदोलन खड़ा हो गया, जिसने पेड़ और हिमालय दोनों बचा लिए. आदरणीय सुंदरलाल बहुगुणा, गोविन्द सिंह रावत, चंडी प्रसाद भट्ट और गौरादेवी जी ने जिस अहिंसक आंदोलन को खड़ा किया था उसे हम 'चिपको आंदोलन' कहते हैं.
आज़ादी के पहले और बाद के दोनों सन्दर्भों को देखें तो आपको समझ आएगा कि क्यों आज़ादी के पहले विद्रोहों बाद भी जंगल बचा पाना संभव नहीं हुआ और क्यों बाद में चिपको आंदोलन का इतना व्यापक असर रहा.
लोकतंत्र. अहिंसा. आज़ादी. गांधीजी के मूल्य. कुशल नेतृत्व. इन सबसे ऊपर स्थानीय लोगों की इच्छा. इतना कुछ था जिसने जंगल बचाया.
लेकिन सोचने वाली बात ये है कि ब्रिटिश राज़ हो या लोकतान्त्रिक सरकार. दोनों के लिए जंगल बस राजस्व (revenue generation) का जरिया थे. जंगल, जैव विविधता और भूमिगत जल संरक्षण (ground water conservation) पर किसी को कुछ सोचना ही नहीं था.
तब भी नहीं था, अब भी नहीं है. तात्कालिक उदाहरण बक्सवाहा फारेस्ट है ही. परतंत्र भारत के नागरिकों की तरह ही जंगल भी सरकारों के लिए दोयम दर्ज़े पर ही रहे हैं. अगर राजस्व मिल रहा है तो जंगल को काटो, उजाड़ो, खोदो और मिनरल्स निकालो, पेड़ बेचो, कंपनियों को टेंडर दो और जरुरत पड़े तो वहां के स्थानीय निवासियों, आदिवासियों को धकेलो, खदेड़ो, बाहर फेंक दो. बिना चिंता किये कि जंगल क्यों आवश्यक है. और क्यों आवश्यक हैं, ये तो 7वीं का बच्चा भी एक अच्छे निबंध से बता सकता है. और क्यों न बता पाए! इसपर सरकारें 22 मई को जैव विविधता दिवस पर या 5 जून विश्व पर्यावरण दिवस पर बच्चों से ही तो निबंध लेखन कराती हैं, अच्छा लिखने वालों को इनाम भी देती हैं.
'वनों का महत्व' विषय पर लिखे एक बच्चे निबंध को टीप कर लिखूं तो. वन आवश्यक हैं:-
1. वायुमंडल की शुद्धि के लिए
2. जैव विविधता के लिए
3. जीवों के आवास के लिए
4. प्राकृतिक वाटरशेड हैं
5. आजीविका का साधन हैं
6. मिट्टी के निर्माण के लिए
7.भूमि कटाओ, बाढ़ को रोकने के लिए
8. मरुस्थलीकरण को रोकने के लिए
9. मिट्टी की उर्वरकता के लिए, ह्यूमस के लिए
10. ग्लोबल वार्मिंग रोकने के लिए
11. वर्षा के लिए
12. प्राणवायु ऑक्सीजन के लिए
13. जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव को रोकने के लिए
13 बिंदु सातवीं का बच्चा लिख सकता है वनों के महत्त्व पर.* फिर भी सरकारें चाहती हैं कि धन और राजस्व के लिए जंगल उजाड़े जाएँ. शायद पास के फायदे के लिए भविष्य तबाह करते जा रहे हैं.
(तस्वीरें: बक्सवाहा के हरे-भरे जंगल की, जिसे उजाड़ हीरे निकाले जाएंगे.)
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