सड़ांध मारती राजनीति के इस दौर में अवतार सिंह संधू ‘पाश’ की कविताएं दर्दनाशक मरहम की तरह काम करती हैं. उन्हें पढ़ते हुए एक सवाल मन में घुमड़ता है कि गर आज पाश जिंदा होते तो इस व्यवस्था पर उनकी प्रतिक्रिया क्या होती? जेल में बंद उम्मीदवारों की जीत पर, या जहर भरने वालों को मुख्यमंत्री पद पर पहुंचता देखकर या इरोम शर्मिला चानू की शर्मनाक हार पर पाश क्या कहते? क्या उनकी कविताओं का सुर बदल जाता या इस वक्त भी वह अपना रोष जताने के लिए बोल देते कि ‘जा पहले तू इस काबिल होकर आ, अभी तो मेरी हर शिकायत से तेरा कद बहुत छोटा है…’
पाश की कविताएं बार-बार यकीन दिलाती हैं कि वे छद्म व्यक्तित्व वाले शख्स नहीं थे. नतीजतन, उनकी कविता आज और ज्यादा मारक होती. उनके शब्दों में और पैनापन होता, उनकी अभिव्यक्ति और तीखी होती. पाश की पहली कविता 1967 में छपी थी. इसी वक़्त वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े और बाद में नागा रेड्डी गुट से भी. पर खुद को हिंसा से हमेशा दूर रखा. पाश की राजनीतिक गतिविधियां काफी तेज रही हैं. विभिन्न पार्टियों से जुड़कर आमजन के लिए लड़ना उनका धर्म रहा है. पर उनकी मुख्य पहचान किसी राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में नहीं बनी, बल्कि एक क्रांतिकारी और जुझारू कवि के रूप में बनी. उस वक्त भी पार्टियों के बदलते स्टैंड और वहां पैठी अवसरवादिता पाश को कचोटती थी. यह पाश की खीज ही थी जो हमारे समय में पूरे चरम पर दिखती है : ‘यह शर्मनाक हादसा हमारे साथ ही होना था / कि दुनिया के सबसे पवित्र शब्द ने / बन जाना था सिंहासन की खड़ाऊं / मार्क्स का सिंह जैसा सिर / दिल्ली के भूलभुलैयों में मिमियाता फिरता / हमें ही देखना था / मेरे यारो, यह कुफ्र हमारे समयों में होना था...’
सुदामा पांडेय धूमिल ने अपनी लंबी कविता ‘पटकथा’ में तार-तार होते भारत की तस्वीर खींची है. उन्होंने बताया है कि इस तार-तार होने में भी हाथ हमारा ही है. क्योंकि अक्सर हमारे विरोध की भाषा चुक जा रही है. हम चुप होते जा रहे हैं. इतना ही नहीं, अपनी चुप्पी को हम अपनी बेबसी के रूप में पेश कर उसे सही और तार्किक बता रहे हैं. कुछ इस तरह : यद्यपि यह सही है कि मैं / कोई ठंडा आदमी नहीं हूं / मुझमें भी आग है / मगर वह / भभक कर बाहर नहीं आती / क्योंकि उसके चारों तरफ चक्कर काटता / एक पूंजीवादी दिमाग है / जो परिवर्तन तो चाहता है / आहिस्ता-आहिस्ता/ कुछ इस तरह कि चीजों की शालीनता बनी रहे / कुछ इस तरह कि कांख भी ढंकी रहे / और विरोध में उठे हुए हाथ की / मुट्ठी भी तनी रहे/ और यही वजह है कि बात / फैलने की हद तक आते-आते रुक जाती है / क्योंकि हर बार / चंद टुच्ची सुविधाओं के लालच के सामने / अभियोग की भाषा चुक जाती है…
पर पाश की कविताएं बीच का रास्ता नहीं जानतीं, न बताती हैं. वे तो प्रेरित करती हैं विद्रोह करने के लिए, सच को सच की तरह देखने के लिए, उससे आंखें मूंद कर समझौता करने के लिए नहीं :
‘हाथ अगर हों तो / जोड़ने के लिए ही नहीं होते / न दुश्मन के सामने खड़े करने के लिए ही होते हैं / यह गर्दनें मरोड़ने के लिए भी होते हैं / हाथ अगर हों तो / ‘हीर’ के हाथों से ‘चूरी’पकड़ने के लिए ही नहीं होते / ‘सैदे’ की बारात रोकने के लिए भी होते हैं / ‘कैदो’ की कमर तोड़ने के लिए भी होते हैं / हाथ श्रम करने के लिए ही नहीं होते / लुटेरे हाथों को तोड़ने के लिए भी होते हैं.’
सोचना चाहता हूं कि आज जब गला फाड़कर ‘भारत माता की जै’ चिल्लाना ही ‘राष्ट्रभक्ति’ का पर्याय बनता जा रहा है, जब लाठी के बल पर राष्ट्रगीत का ‘सम्मान’ स्थापित करवाया जा रहा है, ऐसे समय में पाश की इस कविता को कैसे लिया जाता : ‘मैंने उम्रभर उसके खिलाफ सोचा और लिखा है / अगर उसके अफसोस में पूरा देश ही शामिल है / तो इस देश से मेरा नाम खारिज कर दें .../ ... इसका जो भी नाम है - गुंडों की सल्तनत का / मैं इसका नागरिक होने पर थूकता हूं / मैं उस पायलट की चालाक आंखों में / चुभता हुआ भारत हूं / हां, मैं भारत हूं चुभता हुआ उसकी आंखों में / अगर उसका अपना कोई खानदानी भारत है / तो मेरा नाम उसमें से अभी खारिज कर दो.’
क्या ‘भारत का नागरिक होने पर थूकने’ या ‘गुंडों की सल्तनत’ की अभिव्यक्ति पाश को राष्ट्रद्रोहियों की कतार में खड़ा करवा देती? या यह समझने का धैर्य ‘राष्ट्रभक्तों’ में होता कि यह कविता नवंबर 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों के खिलाफ सात्विक क्रोध में भरकर पाश ने रची थी. इस कविता में मारे गये निर्दोष सिखों के प्रति गहरी सहानुभूति थी, तो दूसरी तरफ सत्ता की गलत नीतियों के प्रति विद्रोह भी.
या कि पाश की यह कविता पढ़कर पाश के नाम के जयकारे लगाए जाते : ‘भारत / मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द / जहां कहीं भी इस्तेमाल होता है / बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं...’ या ‘राष्ट्रभक्त’ पाश की इस बात से सहमत होते कि भारत किसी सामंत पुत्र का नहीं. पाश की तरह वे भी मानने लग जाते कि भारत वंचक पुत्रों का देश है. भारत को अपने लिए सम्मान मानने वाले पाश के शब्दों में : ‘इस शब्द के अर्थ / किसी दुष्यंत से संबंधित नहीं / वरन खेतों में दायर है / जहां अनाज उगता है / जहां सेंध लगती है...’
पाश वाकई खतरनाक कवि थे. इतने खतरनाक कि खालिस्तान समर्थक आतंकवादी उनकी कविताओं से डरते रहे. और आखिरकार जब पाश महज 36 बरस के रहे थे आंतकवादियों ने उनकी उम्र रोक दी, पर वे उनकी आवाज नहीं रोक पाए. तभी तो जहर घुली इस हवा में भी पाश की आवाज गूंजती है. जब विरोध के स्वर को देशद्रोही बताया जा रहा हो, जब समस्याओं को सुलझाने की जगह राष्ट्रभक्ति की आड़ लेकर दबाया जा रहा हो, जब आपकी हर गतिविधि को राष्ट्र सुरक्षा के नाम पर संदिग्ध करार दिया जा रहा हो तो पाश की यह आवाज फिर गूंजने लगती है :
‘यदि देश की सुरक्षा यही होती है / कि बिना जमीर होना जिंदगी के लिए शर्त बन जाये / आंख की पुतली में हां के सिवाय कोई भी शब्द / अश्लील हो / और मन / बदकार पलों के सामने दंडवत झुका रहे / तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है. हम तो देश को समझे थे घर जैसी पवित्र सी चीज/ जिसमें उमस नहीं होती / आदमी बरसते मेंह की गूंज की तरह गलियों में बहता है / गेहूं की बालियों की तरह खेतों में झूमता है/ और आसमान की विशालता को अर्थ देता है / हम तो देश को समझे थे आलिंगन जैसे एक एहसास का नाम / हम तो देश को समझते थे काम जैसा कोई नशा/ हम तो देश को समझते थे कुरबानीसी वफा / लेकिन गर देश / आत्मा की बेगार का कोई कारखाना है / गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है / तो हमें उससे खतरा है / गर देश का अमन ऐसा होता है / कि कर्ज के पहाड़ों से फिसलते पत्थरों की तरह / टूटता रहे अस्तित्व हमारा / और तनख्वाहों के मुंह पर थूकती रहे / कीमतों की बेशर्म हंसी / कि अपने रक्त में नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो / तो हमें अमन से खतरा है / गर देश की सुरक्षा को कुचल कर अमन को रंग चढ़ेगा / कि वीरता बस सरहदों पर मर कर परवान चढ़ेगी / कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलेगा/ अक्ल, हुक्म के कुएं पर रहट की तरह ही धरती सींचेगी / तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है.’
मुमकिन है कि सुरक्षा के ऐसे खतरों से आगाह करती हुई कविता से फिर कोई अतिवादी डर जाता और गर पाश जिंदा होते तो फिर मार दिए जाते. पर इतना तो तय है कि जितनी बार वे मारे जाते उतनी बार उनकी कविताओं की आवाज ऊंचे सुर में जन-जन तक पहुंचती रहती.
source: https://satyagrah.scroll.in/article/105673/could-pash-have-said-these-lines-today
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