आ रही हिमालय से पुकार
|
है उदधि गरजता बार बार
|
प्राची पश्चिम भू नभ अपार
|
सब पूछ रहे हैं दिग-दिगन्त-
|
वीरों का कैसा हो बसन्त।।
|
फूली सरसों ने दिया रंग
|
मधु लेकर आ पहुँचा अनंग
|
वधु वसुधा पुलकित अंग अंग
|
है वीर देश में किन्तु कन्त-
|
वीरों का कैसा हो बसन्त।।
|
भर रही कोकिला इधर तान
|
मारू बाजे पर उधर गान
|
है रंग और रण का विधान
|
मिलने को आए हैं आदि अन्त-
|
वीरों का कैसा हो बसन्त।।
|
गलबांहें हों या हो कृपाण
|
चलचितवन हो या धनुषबाण
|
हो रसविलास या दलितत्राण
|
अब यही समस्या है दुरन्त-
|
वीरों का कैसा हो बसन्त।।
|
कह दे अतीत अब मौन त्याग
|
लंके तुझमें क्यों लगी आग
|
ऐ कुरुक्षेत्र अब जाग जाग
|
बतला अपने अनुभव अनन्त-
|
वीरों का कैसा हो बसन्त।।
|
हल्दीघाटी के शिला खण्ड
|
ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचण्ड
|
राणा ताना का कर घमण्ड
|
दो जगा आज स्मृतियाँ ज्वलन्त-
|
वीरों का कैसा हो बसन्त।।
|
भूषण अथवा कवि चन्द नहीं
|
बिजली भर दे वह छन्द नहीं
|
है कलम बंधी स्वच्छन्द नहीं
|
फिर हमें बताए कौन हन्त-
|
वीरों का कैसा हो बसन्त।
|
प्यार करना बहुत ही सहज है, जैसे कि ज़ुल्म को झेलते हुए ख़ुद को लड़ाई के लिए तैयार करना. -पाश
Saturday, April 4, 2015
वीरों का कैसा हो बसन्त / सुभद्रा कुमारी चौहान
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment