एक कहानी जो बेहद आसान सी हो सकती थी... किसी का खोना और फिर धीरे धीरे मिल जाना, या मनमोहन देसाई नुमा फिल्म सा बड़ा होकर हीरो बन जाना...लेकिन हम अनुराग कश्यप को देख रहे हैं, सब कुछ सीधे सीधे नहीं होता न आसानी से. बहुत पहले ही हमें पता था की इस फिल्म की कहानी एक छोटी बच्ची के खोने की कहानी है....लेकिन कहानी इससे कहीं आगे की है... ये कहानी एक पुलिस अफसर की है जिसका दम्भ एक औरत को 'कीप' बनाता है, शारीरिक और मानसिक रूप से टॉर्चर करता है और जो अपने पास्ट में जी रहा है. एक औरत की है जो अपने प्रेमी के साथ भागने की गलती कर चुकी है और अपने एकतरफा-प्रेमी के साथ रह रही है. जो ज़िन्दगी से ज्यादा नशे में रहना पसंद करती है. एक असफल एक्टर की है जिसकी असफलता ने उसकी पर्सनल ज़िन्दगी बर्बाद कर दी. एक कमीने लड़के की है जो अपने बाप-बहिन को ठगने से नहीं डरता. एक दोस्त की है दोस्ती जिसकी जात नहीं है... और (साल्ले) सब के सब भावनाहीन और स्वकेंद्रित हैं. ये कहानी आज के महानगरीय समाज की है जो अंदर से सड़ा है लेकिन बाहर से बहुत सारा ताम-झाम लगा सुन्दर बनने की कोशिश कर रहा है. एक लड़की के गुम होने की चिंता न उसकी माँ को है, न उसके बाप को है (न शायद सौतेले बाप को ही ). सबके अपने अपने मकसद हैं और उसे पाने में जुटे हुए हैं. गुम लड़की का नाना जिस तरह अपनी जमा पूँजी लगाने को तैयार हो जाता है, और लड़की की माँ अपने ही बाप को ठगती है... ये ज़रूर दो पीढ़ियों के बीच का अंतर बताता है. शायद पीढ़ी दर पीढ़ी हम और भी कमीने होते जाने वाले हैं.... कभी न वापिस इंसान बनके आने के लिए.
अंत में मिली 10 साल को छोटी बच्ची की सड़ी हुई लाश हमारे अंदर के मरे हुए इंसान की लाश लगती है (सबके अंदर का इंसान कुछ कुछ मरा हुआ है, अपने अंदर भी ज़रा झांक के देखना.) और उसकी सड़ांध हमारे समाज की सड़ांध है. दीपक सौलंकी का लिखा अंत का गाना पूरी गाथा लगता है... और फिल्म का अंत देख सुन्न पड़े कानों में सच का शोर सा है.
अभिनय सबके लाजवाब हैं...लेकिन इंस्पेक्टर के रोल में गिरीश कुलकर्णी ने कमाल किया है.
Watch for Story, Acting, Anurag Kahyap.
Do not watch if you wanna miss year's one of best film.
My Rating: 83%
No comments:
Post a Comment