Sunday, January 15, 2017

क्या प्रधानमंत्री संस्थाओं सवालों से ऊपर हैं? / रवीश कुमार


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केंद्रीय सूचना आयोग आख़िरी मुक़ाम है जहाँ आप सूचना के अधिकार के तहत इंसाफ़ पाते हैं। इसी में काम करते हैं सूचना आयुक्त एम श्रीधर आचार्यलु। इन्होंने दिल्ली विश्विद्यालय को आदेश दिया कि 1978 में स्नातक करने वाले सभी छात्रों के रिकार्ड की छानबीन की जाए। इसी साल प्रधानमंत्री मोदी ने यहाँ से स्नातक किया है,जिसकी सत्यता को लेकर लंबे समय से विवाद चल रहा है। इस आदेश के कारण आचार्यलु से मानव संसाधन मंत्रालयों से जुड़ी सूचना की मांग पर फैसले का अधिकार ले लिया गया है। जिस आयोग का काम आपके अधिकारों का संरक्षण करना है,उसके ही आयुक्त को अपना काम करने की सज़ा दी जाती है।क्या सही दस्तावेज़ रखकर हमेशा के लिए इस विवाद को ख़त्म नहीं कर देना चाहिए। आपने डिग्री ली है तो डरने की क्या बात।नहीं भी ली हो तो कोई बात नहीं। सवाल करने वाला यही जानना चाहता है कि आपने डिग्री ली या नहीं। प्रधानमंत्री बनने के लिए डिग्री नहीं चाहिए मगर सवाल उठा है तो विश्वविद्यालय प्रश्नकर्ता को तो दिखा ही सकता है। आयोग को भी दिखा सकता है ताकि शक की गुज़ाइश न रहे।यह ख़बर सब जगह छपी है मगर सब जगह चुप्पी है।
क्या प्रधानमंत्री कानून और तथ्यों से ऊपर हैं? क्या वही अपने आप में तथ्य हैं,सत्य हैं।तमाम संस्थाएँ अब ये बात जनता को भी अपनी इन हरकतों से बताने लगी हैं।आज के इंडियन एक्सप्रेस में ऋतु सरीन की ख़बर छपी है।इसे पढ़ियेगा और खुले दिमाग़ से सोचियेगा।सहारा बिड़ला पेपर्स विवाद के बारे में आप जानते ही होंगे।इन पेपर्स में कई नेताओं के नाम थे मगर इसे प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ मुद्दा बनाया गया क्योंकि उनके भी नाम थे।सुप्रीम कोर्ट ने इन काग़ज़ात की जाँच कराने से इंकार कर दिया है।
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सुप्रीम कोर्ट से पहले इसी मामले की सुनवाई आयकर विवादों के निपटारे के लिए ट्राइब्यूनल में चल रही थी। इसे इंकम टैक्स सेटलमेंट कमिशन (ITSC) कहते हैं । इस संस्था को नब्बे दिनों के भीतर विवादों का निपटाना होता है। पाँच साल में इस संस्था ने एक भी केस नब्बे दिनों के भीतर नहीं निपटाया है। आयोग ने इस मामले की सुनवाई करते हुए आयकर विभाग से किसी जांच की मांग नहीं की। वरिष्ठ पत्रकार ऋतु सरीन को आयोग ने लिखित रूप से जवाब दिया है कि सहारा पेपर्स मामले की सुनवाई सबसे जल्दी पूरी गई है। पाँच साल में एक भी मामले की इतनी जल्दी सुनवाई नहीं हुई है। पाँच सितंबर 2016 को यह मामला आया और 11 नवंबर को फैसला। आयोग ने भी बिना काग़ज़ात की मांग किये फैसला दे दिया। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले में जाँच की ज़रूरत नहीं समझी।
प्रधानमंत्री शुचिता और पारदर्शिता की बात करते हैं । लोग उनकी बातों पर यक़ीन भी करते हैं। क्या लोगों के विश्वास को बनाए रखने के लिए प्रधानमंत्री को ख़ुद इन आदेशों पर नहीं बोलना चाहिए। हो सकता है कि ये आरोप बेबुनियाद हो,फालतू हों मगर दूसरों का इम्तहान लेने वाले प्रधानमंत्री को कहना चाहिए था कि जल्दी जाँच कीजिये और सारे दस्तावेज़ पब्लिक को दे दीजिये। मैं किसी बात से ऊपर नहीं हूँ। लगता है उनकी सारी बातें विरोधियों के लिए हैं। उनके समर्थकों को भी इन सब बातों से फर्क नहीं पड़ता।
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कटनी,मध्यप्रदेश के एसपी गौरव तिवारी के तबादले की ख़बर जब शहर में पहुँची तो गौरव तिवारी के समर्थन में लोग सड़कों पर उतर आए।सोशल मीडिया पर समर्थन जताने लगे।गौरव ने कटनी में पाँच सौ करोड़ के हवाला नेटवर्क का भांडाभोड़ किया है। जाँच चल रही थी कि तबादला हो गया। कांग्रेस विधायक का आरोप है कि बीजेपी के मंत्री का नाम है।ऐसे मामलों की ठीक से जाँच हो जाए तो क्या पता कांग्रेस नेताओं के भी नाम आ जाएँ। सलाम कटनी की जनता का जिसने एक ईमानदार और साहसी अधिकारी को अकेला नहीं छोड़ा। मंगलवार को कटनी के लोगों ने नगर बंद का आयोजन कर न सिर्फ सरकार को चुनौती दी बल्कि गौरव जैसे अधिकारियों को संदेश दिया कि उनकी मेहनत पानी में नहीं गई है। जनता ऐसे लोगों का समर्थन करती है। महानगरों से अच्छी है कटनी की जनता जिसने एक अफसर के लिए वक्त निकाला। अब आपको पाँच सौ करोड़ के हवाला नेटवर्क के बारे में कुछ नहीं पता चलेगा। आप अभिशप्त हैं नेताओं की बातों पर ही यक़ीन करने के लिए कि भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ वही लड़ रहे हैं। बाकी सब लड़ने को क़ाबिल ही नहीं।
क्या भ्रष्टाचार से लड़ने का दावा करने वाले नेताओं के लिए, नैतिकता के लिए ही सही,यह ज़रूरी नहीं कि आईपीएस गौरव तिवारी के समर्थन में बोलें। हर बात पर प्रधानमंत्री का बोलना ज़रूरी नहीं लेकिन ऐसे मौकों पर बोल कर भ्रष्टाचार के नेटवर्क से लड़ने वाले जवानों और अफ़सरों का हौसला नहीं बढ़ा सकते थे। सब कुछ सत्ता पर बैठे लोगों के हिसाब से हो रहा है, उनका समर्थन करने वाले लोगों के लिए जो भी हो रहा है सही हो रहा है।

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