Friday, September 18, 2015

अमरीका का फेडरल रिज़र्व रेट कट करेगा तो क्या होगा | रवीश कुमार


हिन्दी के युवा पत्रकारों से मेरा अनुरोध है कि वे अपना पेशेवर जीवन यूपी और बिहार की साधना में न गंवा दें। राजनीति की जो पारंपरिक समझ हम सबसे के भीतर बन गई है और जिसे हम सब बनाते भी रहते हैं उससे निकलने का वक्त आ गया है। नई आवाज़ों को पहचानिये और नए मुद्दों को खोजिये जिसे आप राजनीतिक बहस का हिस्सा बना सकें। वर्ना जैसा जीवन मुझसे पहले के पत्रकारों का बीता, जैसा मेरा बीत रहा है वैसा ही आपका बीतेगा। छोड़ दीजिए मोकामा इटावा की पोलिटिक्स में पीएचडी पाने की लालसा।
आज मैं इंडियन एक्सप्रेस में ही छपे जहांगीर अज़ीज़ के लेख का सार बताने जा रहा हूं। जगांहीर अज़ीज़ का लिखा मुझे पसंद आता है। इन दिनों पूरी दुनिया में अमरीका के फेडरल रिज़र्व की चर्चा हो रही है। फेडरल रिज़र्व भारतीय रिज़र्व बैंक टाइप ही है। फेडरल रिज़र्व शुक्रवार के रोज़ ब्याज़ दर में बढ़ोत्तरी का फैसला कर सकता है। इस एक फैसले को लेकर वित्तीय बाज़ार में खलबली मची है।
फेड रिज़र्व कई सालों से ब्याज़ दर को शून्य के करीब बनाए हुए है। पहली बार यह उम्मीद की जा रही है कि फेड रेट बढ़ सकता है। जहांगीर का मानना है कि अगर ऐसा हुआ तो लंबे समय के लिए दुनिया के वित्तीय बाज़ार में एक बदलाव आएगा। उभरते हुए बाज़ारों पर इसका असर नहीं पड़ेगा यह सोचना सही नहीं होगा।
ग्लोबल बाज़ार चाहता है कि फेडरल रिज़र्व रेट न बढ़ाये और लंबे समय के लिए टाल दे। जहांगीर मानते हैं कि यह एक टालने वाला कदम होगा। फेड का मानना है कि अमरीका का संभावित ग्रोथ रेट 2.2 प्रतिशत हो सकता है। जहांगीर कहते हैं कि इसे हासिल करने के लिए उत्पादकता बढ़ानी होगी। मामूली बढ़ोत्तरी के लिए भी जो तकनीकी बदलाव और ढांचागत सुधार चाहिए उसकी संभावना नज़र नहीं आती है। हो सकता है कि ग्रोथ रेट 2.2 प्रतिशत के नीचे ही रह जाए। अमरीकी अर्थव्यवस्था में अभी जो भी सुधार दिख रहा है वो रेट कट के बाद की स्थिति में मज़दूरी या पगार के बढ़ते ही गुम हो जाएगा। इससे दुनिया के वित्तीय बाज़ारों को झटके लग सकते हैं।
क्या भारत इस तरह के झटके से बचा रह सकता है, जहांगीर ये सवाल उठाते हैं।
भारत के पास 355 बिलियन डालर का विदेशी रिज़र्व है। चीन के पास कई गुना ज़्यादा है। 3.5 खरब डालर का विदेशी रिजर्व है। ये आंकड़ा देते हुए जहांगीर बताते हैं कि विदेशी मुद्रा भंडार में पैसे का लबालब होना संकट से बचने की कोई गारंटी नहीं है। इसके बाद भी चीनी अर्थव्यवस्था ढलान की तरफ़ है। ढलान रूका नहीं है। अगर अमरीका के फेडरल रिज़र्व ने रेट बढ़ा दिये तो भारत के विदेशी मुद्रा भंडार पर व्यापक असर पड़ेगा। निवेशक अपना पैसा यहां से हटाकर अमरीका में लगा देंगे। भारत अगर अपने रुपये को बचाने के लिए डालर खरीदने लगा तो यह भंडार और भी खाली होता चला जाएगा। विकल्प यह है कि अमरीका में रेट बढ़ता है तो भारत भी घरेलु ब्याज़ दरों को बढ़ा दे।
आप जानते हैं कि इस वक्त रिज़र्व बैंक पर दबाव पड़ रहा है कि वह ब्याज़ दरों को कम करे। जहांगीर एक दूसरी बात कर रहे हैं। चीन में अर्थव्यस्था के सुस्त पड़ने से बाज़ार में अनिश्चितता बनी हुई है। दुनिया के बाज़ारों में मांग घटती जा रही है। इसके कारण भारत का निर्यात कमता जा रहा है। मंगलवार को ही एक खबर छपी है कि भारत का निर्यात कैसे लगातार घट रहा है। आप पत्रकार इसे चेक कर सकते हैं। हमारे निर्यात का 25 फीसदी हिस्सा पश्चिम एशिया, रूस और लैटिक अमरीका जैसे चीली, मैक्सिको या अर्जेंटीना जैसे मुल्कों को जाता है। इन हिस्सों में मांग घटती जा रही है। अगर दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था यानी चीन सुस्त है तो यह मानना ग़लत होगा कि इसका भारत पर असर नहीं पड़ेगा।
जहांगीर कहते हैं कि तेल की कीमतें कम होने से भारत पर दबाव कम है लेकिन मुद्रा स्फीति कम होने से लोगों के बाच खर्च करने के लिए ज़्यादा पैसे आने चाहिए थे। वो क्यों नहीं हैं। आंकड़े बताते हैं कि उपभोक्ता वस्तुओं की मांग में कोई उछाल नहीं है। जहांगीर कहते हैं कि वर्तमान अनिश्चितता के कारण लोग बचत पर ध्यान दे रहे हैं। कारपोरेट के पास पैसे नहीं है इसलिए वे नया पैसा लगा नहीं पा रहे हैं।
इसलिए भारत में नीति बनाने वालों को संभल कर चलना चाहिए। जोखिम भरे कदम उठाने की बजाए जैसा चल रहा है वैसा चलने देना चाहिए। जब स्थिति साफ होगी तब कोई बड़ा कदम उठाना चाहिए। जहांगीर की एक और दलील ख़तरनाक लगती है। इनका कहना है कि महंगाई कम होने से ब्याज़ दरों में कटौती को लेकर दबाव नहीं बनाना चाहिए। बल्कि ब्याज़ दर बढ़ाने चाहिए। इसकी जगह पर तेल की कीमतों में कमी करनी चाहिए जिससे लोगों के पास खर्च करने के लिए अतिरिक्त पैसा आए। यह एक सुरक्षित रास्ता होगा। लेकिन मेरी समझ से जहांगीर रियालिटी सेक्टर और इंफ्रा सेक्टर में आ रही सुस्ती को नहीं देख रहे हैं या क्या पता देख भी रहे हों। जैसा  मैंने कहा कि मैं भी आर्थिक खबरों को सीखने समझने का प्रयास ही कर रहा हूं।
जहांगीर का कहना है कि ग्लोबल अर्थव्यव्था में कई स्तर पर सुधार चल रहे हैं। 2008 से ही। इनमें से कई बदलावों ने बीच रास्ते में ही दम तोड़ दिया। अब कोई नीतिगत ग़लतियां हुईं तो बाद में भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है।

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