Wednesday, November 13, 2013

रूह का क़त्ल

तुम्हारे घर में रखे है
मेरे दिन के क़त्ल के सामान
तुम खुद हो
रात के क़त्ल की वजह.

यादों की मरहम
अतीत के घाव उघाड़ती है
दिन पसीने में तर
जिस्म में बुनता हूँ
रूह की तृप्ति का सामान.
उखड़-उखड़ पत्थर होते दिनों में
पथराती आँखें,
तुम्हारी हक़ीक़त झुठलाते-झुठलाते
खुद ही झूठा हो गया.

एक दिन तुम मिलो तो
घर का सारा सामान ले
मेरा क़त्ल कर देना,
फिर रात भर रोना
मेरे ख्वाब बुनकर.

कहते हैं रूह अमर है.
लेकिन तुम क़त्ल करना मेरी रूह भी,
अगले जन्मों के
बेनाम रिश्ते भी
यहीं दफ़न हों, जायज़ है.

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